पहली बरसात के दिनों की घटा घिरी हुई है। मैं निकल आया हूँ यमुना के सरस्वती घाट पर जहाँ से वह संगम बन जाएगी। नीचे यमुना की लहरें ऐसे उछल रही हैं लगता है बारिश इस बार पाताल से छूटेगी। ऊपर आकाश बादलों से ऐसा झुका हुआ लगता है बारिश सारा रिकार्ड तोड़ डालेगी। तीस पर मेरे अंदर की मुस्कराहट कहती है। ऐसा हो जाय तो कितनी बात फूटेगी। कितना अच्छा लगेगा मुझे। उतना जितना किसी के चेहरे से अवसाद छटने के बाद लगता है। उतना जितना गर्मियों में गाँव के छतों पर हवा के साथ चाँद उतर आता हो। उतना जितना बहाल होती है बिजली इलाहाबाद में लंबी कटौती के बाद। उतना जितना बंगलुरू और मुंबई से रेलवे की परीक्षा दे कर लौटने पर लगता है। या फिर जितना पापा के हाथ से चाय का कप छूट कर टूट जाने पर लगता है क्योंकि सुबह में वे चाँटा लगा चुके होते है मेरे पैर से ग्लास टूटने पर। कुछ वैसा ही अच्छा लगेगा इस बारिश के बहकने पर फिर भी मैं इस किनारे पर बारिश का नहीं तुम्हारा इंतजार करता हूँ।